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शब्दों के पींजरे में

असीम राय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1984
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1371
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत बांग्ला उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर...

Shabdon ke peenjre mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

असीम रॉय और उनकी इस कृति के संबंध में बांग्ला साहित्य-जगत् के कतिपय बहुविज्ञ समीक्षकों के अभिमत:
‘‘मेरे सर्वाधिक प्रिय साहित्यकारों की सूची में असीम रॉय शीर्षकोटि के रचनाकार हैं और मैं उनकी रचनाओं का अनुरागी पाठक हूँ।’’

नीहाररंजन रॉय

एक अनावश्यकता जो आवश्यक हुई

(प्रथम संस्करण से)
प्रस्तावना अनिवार्य नहीं हुआ करती, पाठक तो प्राय: इन पृष्ठों को बिना आँख तक दिये उलट दिया करते हैं, मानों उनके और कथारम्भ के बीच कुछ अवांछनीय आ गया हो, किन्तु कोई-कोई प्रकरण ऐसे होते हैं जहाँ यह व्यवधान आवश्यक ही नहीं अभीष्ट हो उठता है। ऐसा ही प्रसंग यहाँ उपस्थित है। पाठक को स्वयं बाद में प्रतीति होगी कि इसके सहारे वह रचना की वास्तविक स्पन्दनाओं तक पहुँच सका, पैठ सका।

क्योंकि यह रचना एक उपन्यास तो है, पर इसका उद्देश्य एक रम्य कथा सृष्टि कर देना मात्र नही हैं, न ही किसी आधुनिक अमूर्तवादी सिद्धान्त को ललित रूप देकर सामने ला देना है, इसका एक मात्र उद्देश्य है एक मानवीय जीवनगत स्थिति के वस्तुसत्य से साक्षात्कार कराना। यह वस्तुसत्य न कल्पना प्रसूत है, न ही सुने जाने में बटोरा हुआ। यह सर्वथा जिया हुआ है, भोगा हुआ। अपने सुदीर्घ पत्रकार और राजनीतिगत जीवन में सभी कहीं तो मानव प्राणी को इस दुर्भाग्यपूर्ण अवस्था का आखेट हुआ मैंने पाया कि मुँह बोले शब्दों और उनकी अर्थशक्ति के बीच एक खाई निरन्तर बढ़ती आयी है।
कैसे-कैसे उदात्त और सदाशयी, प्रभावी और आस्थामुखर शब्दों के पुंज पल-घड़ी कानों में पड़ा करते हैं ! अर्थ और भाव की दृष्टि से कितने सशक्त और सप्राण हैं वे ! मानों एक-एक उनमें से सिद्ध मंत्र हो ! किन्तु फलिक रूप से क्या हाथ आता है किसी भी शब्दों से ? वे शब्द हैं, शब्द ! अर्थ विहीन, शक्ति-शून्य। स्वयं अपने में भले जीते हों वे, पर ठीक उसी तरह जैसे शून्य आकाश में, यहाँ-वहाँ पंख फड़फड़ाते हुए निर्भाव पक्षी। धरती के थे वे : जनमें यहीं थे, यही के लिए; अब तो उनकी छाया भी दूर ही दूर ऊपर से उतराती निकल जाती है। धर्म और राजनीति, नैतिकता और विवेक : इन क्षेत्रों को छोड़ भी दें; सचाई तो यह है कि पागल प्रेमी तक अपवाद नहीं रह गये। कब क्या कहा, और कब क्या कह उठेंगे : इसका ना बोध रह गया न चिन्ताभाव।

क्या समझा जाये ऐसे में जीवन को, जीवन के व्यवस्था रूपों को, मानव के अपने भविष्य को ? बहुत चाहता हूँ कि एक विनम्र लेखक के नाते कुछ तो सुझाव सामने रख सकूँ। मेरा ही नहीं, सबका प्रश्न है यह :कि कैसे बड़े-बड़े शब्दों के बने चले आये शक्तिशाली पींजरों को तोड़ें और, वास्तविकता को पहचानकर, अपने और सबके प्रति सत्य को ग्रहण करें।
इस दिशा में यह उपन्यास एक विनम्र प्रयास है। बांग्ला में प्रकाशित हुआ यह, तब प्रमुख समीक्षकों ने ही नहीं, सुधी एवं विवेकी पाठकों ने भी इसे भरपूर स्वागत मान दिया। हिन्दी पाठक जगत् तो बहुत व्यापक है, फिर भी इस रचना का प्राप्य इसे मिलेगा, मुझे विश्वास है।

24 जुलाई, 1980
असीम रॉय

दूसरे संस्करण पर


मेरे उपन्यास ‘शब्दों के पींजरे में’ के स्नेहपूर्ण स्वागत के लिए मैं सहृदय हिन्दी पाठक के प्रति कृतज्ञ हूँ। यह, मेरे विचार से, उनकी इस जागरूकता की संस्तुति है कि एक गंभीर उपन्यास मात्र एकल मनोरंजक कथा नहीं, बल्कि एक जीवन-स्वप्न होता है।
पिछले तीस वर्षों से मैं अपने उपन्यास एवं कहानियों के द्वारा जीवन के इस स्वप्निल दर्शन को चाम और रक्त देने का प्रयास करता आ रहा हूँ। हमारे पूर्वजों द्वारा देखे गये कई सपने अब तक खो चुके हैं। परन्तु हम जगत और जीवन को लेकर नये सपने बुन रहे हैं। यही कारण है कि हमारी यातनायें और हमारे हर्षातिरेक भिन्न हैं। परम सुख और संतोष की बात है यह कि जगत और जीवन के प्रति मेरा दर्शन, जैसा कि वह मेरे उपन्यास में ध्वनित हुआ है, सजग पाठकों के हृदयों में प्रतिध्वनित हो सका।

20 मई, 1984
असीम रॉय

कोठीघाट
एक


उपले-थुपी पूरी दीवार की मुँडेर के ठीक ऊपर टिंग-टिंग करते हरसिंगार की कई डालें। उससे सटा सात जनम से अनपुता पीला-काला-सफेद दुतल्ला मकान और उसके पास खुले नाले को पार करते ही मुहल्ले के क्लब का मैदान। मैदान यानी घास-उजड़ी बस इत्ती-सी जमीन कि वहाँ बैडमिन्टन खेलकर जवानी को टिकाये रखने की जी-तोड़ कोशिश कर ली जाती है। उसके बाद दो-तीन शिवालों के बीच प्लाइवुड़ का कारखाना और लकड़ी के चट्टों के पास से गंगा नहाकर लौटती बूढ़े-बूढ़ियों की ‘जय बाबा’ की भटकती हुई आर्तध्वनि, जो उस कारखाने की घर्घर में डूब-डूब जाती है। बीस साल पहले भी जो लोग इधर आये हैं या जिन्होंने दो-एक रात ही यहाँ बितायी है, उनके लिए इस स्थान का परिवर्तन प्राय: पी.सी. सरकार का इन्द्रजाल ही समझिए। बेशक वरानगर के माने ही गली है। कुछ सम्पन्न भद्र जनों ने म्यूनिसिपैलिटी के मामा-चाचाओं के सहारे अपने मकानों की चौहद्दी को बढ़ाते-बढ़ाते रास्ते को और भी टेढ़ा-मेढ़ा और सँकरा कर दिया है। लेकिन जमाना रास्ते या नये मकानों से तो नहीं, मिजाज से पलटा है।

क्योंकि यह गंगा नहीं है। वराहनगर से सटी हुई जो गंगा बह रही है, तब जरा पच्छिम-मुँही थी। वहाँ एक समय रामकृष्ण ने अपनी जगज्जननी का ध्यान किया था। वही ध्यान कलकत्ते के अनेक-अनेक धनी-निर्धनों को खींच लाया था। बाबुओं के वाग्-विलास के इस स्थान को इस गंगा ने एक आध्यात्मिक महत्त्व दिया है। उस समय अनगिनत पापी तापियों के लिए पूतसलिला भागीरथी एक आक्षरिक सत्य थी। लेकिन आज तो जनसंख्या के दबाव से नल के पानी का प्रेशर कम हो जाने के कारण आयी पानी की कमी की मुख्यतया गंगा-स्नान का कारण है। आसपास जो पोखर थे उन्हें पाटकर मकान खड़े करवा लिये गये हैं, थोड़े से जो बचे वे स्थानीय नगरपालिका के लिए मैला-स्नान हैं : ऊपर तक कूड़े-कतवार से भरे हुए। चापाकलों के सामने लम्बी-लम्बी कतारें। इसलिए लाचार गंगा-स्नान। बीच-बीच में किसी पकी उम्र के कण्ठ से ‘मां तारा’ या ‘जय शम्भू’ की पुकार निकल उठती है। लेकिन उस आवाज की कोई प्रतिध्वनि नहीं होती। और-और चीख पुकारों में वह खो रहती है।

उस पार बेलूड़ मठ का शिखर : कारखानों की चिमनियों से उठते हुए धुएँ से ढँका। ज्वार में मरी भैंस बहती आती है। कौए-सा आकार लाश पर बैठते और उड़ते हैं, पानी में चमड़ी कड़ी हो जाने से चोंच मारने की सुविधा नहीं पाते। भाटे के समय पुराने दिनों के बड़े-बड़े घाटों की टूटी सीढ़ियाँ कीचड़ में दाँत निपोरे रहती हैं। पानी पर कल कारखानों का तेल तैरता रहता है। यह गंगा मानो ‘स्टेट्समेन अखबार की गंगा हो : ‘‘द सिल्टिग ऑव द हुगली-बेड इज ए मैटर ऑव ग्रेट कन्सर्न फ़ॉर द पोर्ट ऑर्थरिटीज।’’ या तो फिर बँगला अखबारों की जीती-जागती चेतावनी हो : ‘‘यह बात भुलाने से नहीं चलेगा कि गंगा के भविष्य से ही कलकत्ता महानगरी का भविष्य जुड़ा हुआ है।’’ एक जीवन्त ठेठ आज का प्रश्न, एक निरन्तर बहती हुई पीड़ा दायक जिज्ञासा है यह गंगा। महत्त्व की जो शक्तिमत्ता है, प्राण देनेवाली संजीवनी है, वह इस गंगा से बहुत दूर है, जैसा कि अपसृत है हमारे जीवन से बहुत कुछ।

और सवेरा होते ही वरानगर के बाजार में चाय की दुकानों में युवकगण अखबारों पर टूट पड़ते हैं। बड़ी अधीर ललक के साथ, और कोई सस्ती-सी सिगरेट सुलगाकर, उसकी हेडलाइनों, विशेष प्रतिनिधि द्वारा दिये गये समाचारों या सम्पादकीय पर झुक जाते हैं। बीच-बाच में रास्ते के दूसरी ओर देखने लगते हैं : जहाँ गोश्त की दुकान में तुरत का खाल-उचारा पाठा झुलाया हुआ है, पंजर और रानों से गरम-गरम भाफ उठती है।
पहले जिस प्रकार लोग रामायण-महाभारत पढ़ते रहते थे और मोदी की दुकान में जो दृश्य देखकर मंगलकामी सीधे-सादे वाजिदवली कह उठे थे, ‘यही भारतवर्ष है या नहीं, कहना कठिन है; लेकिन अखबार पर तो समूचा बंगाल ही करुण भाव से टूट पड़ता है।

और साँझ के बाद, युवक पिता दुर्गापूजा पर खरीदे गये नीले फ्रॉक में सजी अपनी नन्हीं-मुन्नी का हाथ-थामे जैसे ही जरा घूमने निकला कि बत्तीस नम्बर की बस समूचे रास्ते को छेंककर ऊपर आ धमकी। मुन्नी पिता का हाथ छोड़, इकन्नी–वाले बेलून को जी-जान से पकड़े हुए, फुटपाथविहीन उस सँकरे रास्ते से उछलकर दवा की दुकान के बरामदे में जाकर जान बचाती है। इसी का नाम है सान्ध्यभ्रमण।

बीच-बीच में अवश्य टिन की चाय-दुकान के पास जो नयी पुती चहारदीवारी थी उसकी फाँक से बिल्डिंग के प्रांगण में बोगनविलिया के मचान के नीचे खड़ी झकाझक ऐम्बैसेडर कार और चौकन्ने अल्सेशियन नजर आ जाते हैं। पास ही मन्दिर से सटी प्लाइवुड़ फैक्टरी या संगमरमर की मूर्ति से शोभित लॉन के ऊपर विशाल मोटर-गैरेज, रंग-उखड़े बोनेट के ठीक ऊपर मानों नाचती हुई सुन्दरी। मोज़ेइक के विशाल सिंहद्वार के अन्दर ही कोयले के पहाड़ के सामने ऊँचे-ऊँचे सींगवाले दो बैल और वहीं टिन के पीले टुकड़े पर लाल स्याही से लिखा ‘रामसिंह कोल डिपो’ या कभी जतन से पाले गये वाट्ल-पामों की पाँत के पास यौवनमदमत्त कारखाने का साइन-बोर्ड।

सिर्फ गरमी के दिनों, जब नदी पर रह-रहकर हवा बहती है, पानी आवाज करता है। उस पार की चिमनियों में धुआँ होने पर भी हवा आसमान को निधुआँ रखती है और बेलूड़ मन्दिर के सिर पर तारे उगते हैं, घाट के बड़े-बड़े पीपल और बरगद हलके-हलके डोलते हैं, तो लगता है, नहीं, यह गंगा अन्त-अन्त तक बच जायेगी। इसकी प्राण शक्ति की क्षमता में फिर से आस्था होगी। फिर रामकृष्ण वर्णित जगज्जननी हो या मार्क्स-कीर्तित साम्यवाद हो, किसी एक प्राणदायिनीशक्ति में विश्वास लेकर मनुष्य फिर से आत्मविश्वास पायेगा। मन्दिर से इस प्रकार सटकर प्लाइवुड का कारखाना नहीं खड़ा होगा और इस तरह टूटकर लोग अखबार नहीं पढ़ेंगे।
 

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